Dr. Neelam

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पत्थर हो गये




चित्र-चिंतन.....
    *पत्थर हो गये*

माटी से बचकर
निकले
पत्थर बन गये हैं
अर्थ में बहने की चाह थी,
राह में थम गये हैं।

घर कच्चा पर 
रिश्ते पक्के थे
साँझें दुःख
खुशियाँ साँझी थीं,
बिन किवाड़ो की
दीवारें,
खिड़कियाँ पड़ौस में
खुलतीं थीं,
चूल्हों पर पकती रोटियाँ
हर घर पहुँचती थी।

हम माटी हैं
मिटना नियति है
जानते हैं
तभी रिश्ते दिल से
जुड़े
अपनेपन के भावों
से भरे
निर्मल,कोमल थे,
ढाल लेते थे हर
हालाती साँचें में खुदको
मस्त हरहाल में
रहते थे।

जबसे आए 
कंकरीट के जंगल
पत्थरों की नगरी में
जज्बाती भावों पर
स्वार्थ की सीमेंट की
परत- दर- परत
चढ़ने लगी है,
रिश्ते तिजारती,परिवार
टूटने लगे हैं।

रहते थे माटी के घर में
बुजुर्ग सम्मानित
होते थे,
दसवें, बीसवें घर के
बुजुर्ग की बात भी
पत्थर की लकीर
मान सिरोधार्य थी,
पत्थरों के घर से
बुजुर्ग विस्थापित हो
बेघर हो रहे,
नारी नारायणी मान
पूजनीय कहते हैं
मगर.......
उसकी चीखों को
सुनकर भी बहरे हो गये।

       ११४०२/२०१९


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5 Comments

बेहतरीन और यथार्थ चित्रण

Reply

Rupesh Kumar

13-Dec-2023 09:52 PM

V nice

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Reyaan

12-Dec-2023 07:40 PM

Nice

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